aayu banee prastavana
जब सुनहली चेतना के ज्वार में उड़ती हुई-सी
व्योम को छूने चलोगी
जब सिहरकर लौटती, रुकती, पुनः मुड़ती हुई-सी
धर तड़पता हाथ लोगी
जब सुरभिमय साँस से मंत्रित भुजंगों-सी भुजायें
काँप बल खाती बढ़ेंगी
मुग्ध मन की भावना में पल रहीं सौ-सौ व्यथायें
नेत्र मणियों से मढ़ेंगी
भूल मत जाना मुझे, प्रिय!
आज इन रतनार अधरों की सुरा विष बन रही है
काँपते मेरे अधर पर
पर कहीं तो मुग्ध बरसेगी घटा जो तन रही है
इंद्रधनु-सी काँप झर-झर
साँझ का तारा, गगन की नील पर्तों में जड़ा मैं
प्रिय! तुम्हें देखा करूँगा
रूप का मधुहास बंकिम, चाँद में तिरछा अड़ा मैं,
देख, अनदेखा करूँगा
भूल मत जाना मुझे, प्रिय!
और ही कलि-फूल होंगे, और ही सौरभ बहेगा
नव वसंती जागरण में
इस तिमिरपंखी भ्रमर का ध्यान भी किसको रहेगा
प्रीति के मधुमत्त क्षण में!
लौटती स्मृति-सा सहस्रों आवरण को चीरकर भी
मैं तुम्हें पुलकित करूँगा
हास बरसाते अधर के इंद्रधनुषी तीर पर भी
खींच मन की प्यास लूँगा
भूल मत जाना मुझे, प्रिय!
1965