usar ka phool
आत्म-चिंतन
नित-नित नयी-नयी लहरों से मैं खेला करता हूँ.
एक लहर का अंचल पकड़े, लघु तिनके-सा बहना
कैसे कोई सह पाता है सदा एकरस रहना!
नयी-नयी लहरों पर तिरता
नये-नये देशों में फिरता
नित-नूतन सौंदर्य-चेतना जीवन में भरता हूँ
नित-नित नयी-नयी लहरों से मैं खेला करता हूँ
मुझे न भाता जीवन में आडंबर इतना ज्यादा
मन में रहती भरी सदा बड़वा-सी भीषण ज्वाला
कैसे वाणी में संयम हो, अधरों पर वरमाला!
उड़ें तितलिंयाँ, मधुकर गायें
पंछी मधु-स्वर ले इठलायें
फूल रहे क्यों मौन लिए सुंदरता की मर्यादा!
मुझे न भाता जीवन में, आडंबर इतना ज्यादा
मेरी आँखों में, आँसू बन, भावुकता पलती है
जाने किस भूले-से जीवन की स्मृतियाँ हैं जगती
जग की सब वस्तुएँ मुझे हैं चिर-परिचित-सी लगती
देख प्रकृति, जड़-चेतन संसृति
मानव, उसकी निखिल कलाकृति
रोम-रोम से फूट, प्रेम की सरिता बह चलती है
मेरी आँखों में आँसू बन भावुकता पलती है
ईश्वर है सौंदर्य, प्रेम ही एक धर्म है मेरा
देकर झूठी आशा, दुनिया के लोगों को ठगते
जग के सभी धर्म मुझको बिल्कुल बनावटी लगते
मानवता की मुक्त राह पर
मैं अपने पौरुष पर निर्भर
जाता, जिधर हृदय ले जाता, व्यर्थ न देता फेरा
ईश्वर है सौंदर्य, प्रेम ही एक धर्म है मेरा।
1941