geet vrindavan
कहा हरि ने—‘ ब्रज-रज है प्यारी
फिर उसका क्या कहना जिसमें राधा-छवि है न्यारी !
नयन रहे कुछ तिरछे झुक-से
अधर बोलने को उत्सुक-से
बढ़कर पाँव गये हैं रुक-से
कटि पर है घट भारी
‘शिल्पी ! यह छवि किसे न भाती!
पर मुझको है विकल बनाती
क्या तड़के पनघट पर जाती
अब भी वह सुकुमारी ?’
श्याम न कुछ आगे कह पाये
ब्रज के खेल याद हो आये
गालों पर मुक्ताकण छाये
तन की सुधबुध हारी
कहा हरि ने—“ब्रजरज है प्यारी
फिर उसका क्या कहना जिसमें राधा-छवि है न्यारी!