bhakti ganga
क्या नहीं इस जीवन में पाया!
नित मोहिनी रूप कविता बन तू ही तो, प्रभु! आया
तूने ही जब जग में भेजा
मुझको यह रस-कलश सहेजा
कहा ’इसे, कवि! घर-घर ले जा
रचा प्रेम की माया’
मैं छविगृह में दीपशिखा पर
नाचा किया चकित हो-होकर
इस सुख के आगे, जगदीश्वर!
कुछ भी और न भाया
यदि जो काव्य-सुधा-रस-भोगी
सुनें न, कलक मुझे क्या होगी!
यह क्या कम है, बन सहयोगी
तूने सँग – सँग गाया
क्या नहीं इस जीवन में पाया!
नित मोहिनी रूप कविता बन तू ही तो, प्रभु! आया