diya jag ko tujhse jo paya
कितने रूपों में आ-आ कर
कितनी बार सँभाला है तूने मुझको, जगदीश्वर !
जब सब तंत्र-मंत्र थे हारे
अपने नियम लाँघ कर सारे
तूने बिगड़े काम सँवारे
ली मन की चिंता हर
क्या इतनी दूरी तक आता
यदि मैं तेरी कृपा न पाता !
यही विनय है, सृष्टि विधाता !
हो यह कृपा निरंतर
शेष समय तक जीवन-रण के
रह यों ही तू सारथि बन के
श्रद्धा भाव सुदृढ़ कर मन के दे
नव जीवन का वर
कितने रूपों में आ-आ कर
कितनी बार सँभाला है तूने मुझको, जगदीश्वर !