diya jag ko tujhse jo paya
तेरी लीला की बलिहारी
जिसका आदि न अंत कहीं भी ऐसी सृष्टि पसारी
कण में सिन्धु, सिन्धु में कण है
क्षण-क्षण सृजन, नाश क्षण-क्षण है
अगणित रूपों में चेतन है
एक अमित छविधारी
तू रह कर भी अगम अगोचर
रहता सब के साथ निरंतर
पाल कोटि ब्रह्माण्ड रहा, पर
तृण की सुध न बिसारी
‘टूटे महामोह का घेरा
मिले मुझे भी दर्शन तेरा’
तुझे कठिन क्या, यदि मन मेरा
कर बैठा प्रण भारी !
तेरी लीला की बलिहारी
जिसका आदि न अंत कहीं भी ऐसी सृष्टि पसारी