usha
मैं बढ़ता जैसे अग्नि-बाण
चिर-अप्रमेय, चिर-अप्रतिहत, विद्युत की लहरों के समान
मेरे प्रकाश से जगत निखिल
यह इंदीवर-सा जाता खिल
जड़ता भी यह मुझमें घुलमिल
लगती है चेतन के समान
जीवन-सरि का चंचल प्रवाह
प्रति-क्षण नव उत्सव, नव उछाह
यह मूक विवश, जन-गण-अथाह
पाता मुझसे ही अभय-दान
नियमों का है शासन कठोर
कंपित अग-जग के ओर-छोर
मन में बैठा यह कौन चोर?
मैं निज से ही क्योंच भीत-प्राण?
मैं बढ़ता जैसे अग्नि-बाण
चिर-अप्रमेय, चिर-अप्रतिहत, विद्युत की लहरों के समान