desh virana hai

1
प्रकृति जिसको फूल का वरदान देती है
धूल की चादर उसी पर तान देती है
जन्म सोने की घड़ी है, मृत्यु जगने की घड़ी
बीच में लघु स्वप्न का व्यवधान देती है

2
मृत्यु पथ-अंत नहीं, सीमा है
राग अवरुद्ध नहीं, धीमा है
चेतना के प्रगल्भ शिशुओं की
यह समझ लो कि दूसरी माँ है

3
गोद में उठा के बिजलियों ने मुझे रात में
बादलों की सेज पर सुलाया हिमपात में
नील मधु-पात्र उर्वशी ने दिया भरके
एक मधुस्पर्श लगा शीतल-सा गात में

4
कोई भी साज न सामान हो सफर के लिए
पाँवों के नीचे धवा और गगन सर के लिए
वस्तुएँ जो भी यहाँ की हैं, यहीं छोड़ उन्हें
जैसें आये थे, उसी भाँति चलो घर के लिए

5
जो साँस आ रही है ग़नीमत समझो
हर लौट रहे ज्वार की कीमत समझो
आयी जो बन सँवरके जिंदगी की दुल्हन
कल और के सँग होगी, निजी मत समझो

6
किसीने मोम के पुतलों का एक खेल किया
बना-बनाके उन्हें आग में ढकेल दिया
जिन्हें गुलाब की पँखुरी से रगड़ लगती थी
उन्होंने शीश पे लकड़ों का बोझ झेल लिया

7
आँख को मूँद तनिक देख तो लूँ!
साँस को रूँध तनिक देख तो लूँ!
मृत्यु का स्वन-लोक कैसा है
शून्य में कूद तनिक देख तो लूँ!

8
कुंडी को खटखटाके जरा देख तो लूँ!
पट थोड़ा-सा हटाके जरा देख तो लूँ!
क्या रूप कि संसार मरा जाता है!
शीशे में मुँह सटाके जरा देख तो लूँ!

9
आयु का प्रदीप ज्योतिहीन हुआ जाता है
जीवन का सूत्र सतत क्षीण हुआ जाता है
साँस फूँक-फूँक हम फुलाते ही रहे थे जिसे
कंदुक वह शून्य में विलीन हुआ जाता है

10
क्या दिया जीवन मुझे तूने कि तेरा हो रहूँ मैं!
रह गया क्‍या शेष रहने के लिये अब, जो रहूँ मैं!
यह दुपहरी की सघन तरु-छाँह, ये ठंडी हवायें
जी यही करता कि अब चादर बिछा कर सो रहूँ मैं

11
फूलों की तरह हँस के बिखर जायेंगे
बच्चों की तरह दौड़ के घर जायेंगे
क्यों तू है परेशानअभी से, ऐ दिल!
मौत आएगी जब शान से मर जायेंगे

12
जो कुछ जहाँ का था वहीं पर छोड़ आया हूँ
मिट्टी के घरौंदे सभी तोड़-फोड़ आया हूँ
खेल सभी खेल, थका हारा हुआ साँझ हुए
भूला शिशु जैसे जननी की क्रोड आया हूँ

13
झिलमिले दीप नयन, स्नेहभरे, सकुचाये
यह सलज दृष्टि, अमृत-वृष्टि हलाहल होगी
यह मधुर साज जिसे काल स्वयं झनकाता
यह भृकुटि-भंग, हँसी वक्र, कहाँ कल होगी !!

14
ये अरुण गाल जहाँ, शुष्क उड़ेंगे पाटल
ये मदिर ओंठ जहाँ, ठूँठ शमी का होगा
और ये अंग तरुण आज जहाँ अँगड़ाते
कल वहाँ ढूह किसी भग्न कुटी का होगा

15
सैकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
दिन ढलें लाख, न यह रात पुनः आयेगी
रत्न-सा छुट न कभी हाथ लगेगा यौवन
रूप की लौट न बारात पुनः आयेगी

16
शाह जमशेद कहाँ तख्त सुलेमानी आज!
लुब्ध महमूद, कनक-छत्र-सहित सोया है
धूल में लीन सिकंदर महान की फौजें
कौन यह मुर्दघटी देख नहीं रोया है!

17
काल है क्रूर वधिक और विवश भेड़ें हम
रात-दिन ज्वार-उड़द खेत, फिराकर जिन पर
व्यर्थ दो-चार कदम, लुब्ध पुनः कर देता
बाड़ में बंद हमें, कंठ पकड़, गिन-गिनकर

18
‘काल शतरंज बिछी, और सभी मुहरे हम
घर धवल-श्याम दिवा-रात्रि, चला जल्दी में
चाल दस-पाँच हमें, भाग्य पुनः रख देता
काल की जीर्ण उसी धूलसनी पेटी में

19
धन बहुत जोड़, बड़े सौध चिनाये तो क्या!
मान, धन, शक्ति, प्रिया रूपबती, मृगनयनी
प्राप्त हर वस्तु, जिसे विश्व समझता सौभाग्य
अंत तो किंतु वही सेज मिली चिर-शयनी’

20
कोई तो विराट्‌ इस काव्य का प्रणेता है
अक्षय विभा जो अणुओं में भर देता है
मृत्यु का नहीं है अस्तित्व कहीं जीवन में
मानता नहीं पर मुझमें जो नचिकेता है

21
मैं रहूँगा न जहाँ कौन सुरालय होगा!
किस प्रिया का न मुझे रूप झलक जायेगा!
कौन यौवन कि जहाँ प्यास न होगी मेरी!
अंश मेरा कि भरा पात्र छलक जायेगा’