seepi rachit ret

देख किसीको

देख किसीको मन में मीठी व्यथा समा जाती है जब,
उसकी अलकों की उलझन, पलकों की सुघर सरसता में
रम जाते लोचन लालची, और क्या हो सकता है तब
इसके सिवा, आह भर-भर तड़पो अपनी परवशता में!

फूलों की सुंदरता पर कोई भौंरा मँडरा सकता,
दीपशिखा पर जल सकता है कोई भी पतंग आकर,
अगणित पथिकों को आश्रय देकर भी कुंज नहीं थकता,
जो भी तृषित तीर पर आता, प्यास बुझा देता निर्झर।

मानव-जग में ही सुंदरता क्‍यों इतनी दुष्प्राप्य बनी,
धर्म-समाज आदि ने मिल क्‍यों उसको बना दिया सीमित
एक व्यक्ति के लिये, बनाना जिसे चाहते सब अपनी
हृदय-कुसुम भावुकता-सुरभि-सना कर चरणों पर अर्पित ?

कुसुम, प्रदीप, कुंज, निर्झर, सब सुंदर फिर भी बंध-रहित,
मानव की ही सुंदरता क्‍यों रक्षित इतने यत्न-सहित?

1941