seepi rachit ret

बासी होता प्रेम कहीं

जब मैं अंतिम साँस खींच जाऊँगा दूर चला तुमसे
उस अजान नगरी में जिससे कोई लौट नहीं आया
वर्णन करने को, तब खोले नयन हमेशा गुमसुम-से
क्‍या जीवन भर बनी रहोगी तुम उदास जैसे छाया–

मरु के सूने तरू की नीरव? या सखियों की बातों में
घुलमिल, खिलखिल हँसा करोगी, भूली भाग्य विषम अपना
होगा जिसका बोध तुम्हें केवल हिम-शीतल रातों में
जग पड़ने पर, देख अचानक मेरे चुंबन का सपना

या मुख-शशि यह अन्य किसीके मानस का होगा श्रृंगार
नयी उमंगों से इठलाता, पहले कुछ – दिन स्मृति मेरी
आयेगी चर्चा मनोज्ञ बन प्रिय के साथ एक-दो बार
फिर सब कुछ भूलोगी ज्यों बचपन की हो हेराफेरी

और एक दिन प्रेम-व्यंग्य, सुन, ‘वह पहले-सी बात नहीं!
भौंह नचा, हँस उत्तर दोगी, ‘बासी होता प्रेम कहीं!’

1941