seepi rachit ret
मिल न सका क्यों होकर एक
देखा, झुक मध्याह्र-पवन को करते मुक्ति-प्रयत्न, कभी
क्रुद्ध महासागर के कभी न छुटनेवाले पंजों से
और हार कर गिर पड़ते? एकत्र जान ग्रह-पुंज सभी,
देखे हैं भू-स्फोट और उड़ते कोमल शिशु कंजों-से–
ढहते हुए नगर-पथ के नभ-चुंबी मणिमय सौधों से?
मेरे दुर्बल प्राण तड़पते ज्यों जल से बिछुड़ी मछली,
दूर विदेशी मिट्टी में रोपे गुलाब के पौधों-से
वैसे इस ज्वाला में, क्षण-क्षण जो बाहर पड़ती निकली।
व्यथा न यह रंजित कैसे बतलाऊँ बिना भेद खोले!
झूठ एक कहने के पहले लाख बार मर जायेगा
सच्चा कवि, क्या हाय! प्रेम में जलते हुए हृदय को ले
भूमि-गर्भ के बीच समा जाऊँ मैं बरसाती नद-सा!
धधक रहे हैं आज विवशता की भट्टी में बुद्धि-विवेक,
प्यार किया था जिसको उससे मिल न सका क्यों होकर एक!
1947