seepi rachit ret

राजस्थान के सेकत टीलों में एक शिशु की शवयात्रा को देखकर

यह कठोर शिशु-पालन जिसमें शिशु के नयन खोलते ही
उसे गाड़ देते ले जाकर बालू के नीचे दस हाथ
जहाँ न मारुत की भी गति, जननी के स्तन टटोलते ही,
क्या न तुरत वह जाग उठेगा, विकल, भूख लगने के साथ?

तनिक धूप भी सह न सका जो मुरझाया शेफाली-सा
बाल-किरण से, सह पायेगा कैसे अब इस मरु का ताप
जो भट्ठी पर धरी हुई लोहे की रक्तिम जाली-सा
जल उठता मध्याह्न-प्रहर में, छोड़ ऊष्ण कण-कण से भाप ?

यों विचारते जाते थे हम आँधी में दृग मींचे-से
‘होंगे कितने लघु अर्भक इस रेणु-गर्भ में निद्रालीन,
सतत बिछलती हुई बालुका में पाँवों के नीचे से
खिसक, खिसक जाते होंगे जो भर-भर कर किलकारी क्षीण।’

अस्त हुआ दिन, हमें चिढ़ाते-से तारों के मिस निःस्वर,
नभ-पट पर खिलखिला उठे अगणित शिशु रज से उठ-उठकर।

1941