bhakti ganga
दुख यह किसके आगे रोऊँ!
जाती नहीं विकलता मन की, लाख अश्रु से धोऊँ
सम्मुख स्वर्ण-शिखर लहराया
मैं ज्यों ही छूने को आया
हरित लताओं ने ललचाया
‘आ, तेरा श्रम खोऊँ’
अभी नयन मूँदे थे पलभर
रवि जा पहुँचा अस्ताचल पर
अपराधी मैं क्या मुँह लेकर
तुझसे सम्मुख होऊँ!
होते ही तम-रजनी का क्षय
संभव है फिर हो अरुणोदय
पर तब तक क्या यहीं निराश्रय
लम्बी ताने सोऊँ?
दुख यह किसके आगे रोऊँ!
जाती नहीं विकलता मन की, लाख अश्रु से धोऊँ