bhakti ganga
मुझ-सा कौन यहाँ बड़भागी!
जिसके प्रति तेरे मन में भी स्नेह-भावना जागी!
जब भी बाधाओं ने घेरा
तूने हाथ पीठ पर फेरा
पूरा किया सदा हठ मेरा
दी, जब जो निधि माँगी
पहले मैंने कहा कि कण भर
फिर चाहा लूँ भर-भर गागर
तू चिर-निर्गुण, निस्पृह था, पर
ममता गयी न त्यागी
फिर भय क्यों यह शेष प्रहर में
‘छोड़ न दे तू कहीं अधर में
आ न सकूँ फिर इस भू पर मैं
बन तेरा अनुरागी!’
मुझ-सा कौन यहाँ बड़भागी!
जिसके प्रति तेरे मन में भी स्नेह-भावना जागी!