bhakti ganga
यदि मैं चित्र न देखूँ तेरे
तो फिर किसके लिए निरंतर तू यों कूची फेरे!
क्यों फिर कर इतनी चतुराई
तूने है यह सृष्टि बनायी!
ऐसी-ऐसी छवि दिखलायी
नयन न हटते मेरे!
मिटती हैं रेखायें बन-बन
क्षण-क्षण होता पट-परिवर्तन
चिर-पुराण भी हैं चिर-नूतन
ये रंगों के घेरे
पर मेरा मन जहाँ बिका है
दृश्य निमिष भर वह न टिका है
मोह न क्या अपनी कृति का है
तुझको, निठुर चितेरे!
यदि मैं चित्र न देखूँ तेरे
तो फिर किसके लिए निरंतर तू यों कूची फेरे!