bhakti ganga
लिखूँ क्या, जब तक तू न लिखाये!
कैसे चलूँ, धरे उँगली यदि शिशु को माँ न चलाये!
जो न रहस्य सृष्टि का जाने
नहीं स्वयं को भी पहिचाने
कैसे वह निज को कवि माने
रस के घट भर लाये!
तेरी ही करुणा के बल पर
मैं ले रहा काल से टक्कर
और नहीं तो बालू के घर
किसने नहीं बनाये!
यही विनय है, अंतिम क्षण तक
तेरे चरणों पर हो मस्तक
छेड़ूँ मैं नित नव स्वर-सप्तक
यह लय टूट न जाये
लिखूँ क्या, जब तक तू न लिखाये!
कैसे चलूँ, धरे उँगली यदि शिशु को माँ न चलाये!