bhakti ganga
शक्ति दे, मन को सुदृढ़ बनाऊँ!
कितना भी गहरा संकट हो, तनिक नहीं घबराऊँ
जब भी विकल हुआ मैं, स्वामी!
तूने ही बाँहें हैं थामी
निज दुर्बलता, अंतर्यामी!
तुझको क्या बतलाऊँ!
दुख जितना भी हो सब सह लूँ
बढ़ा-घटाकर जग से कह लूँ
दुख में भी सुख से ही रह लूँ
बस इतना वर पाऊँ
यह विश्वास रहे अंतर में
डाँड़ धरे है तू निज कर में
निश्चय लाघूँगा सागर मैं
लाख झकोरे खाऊँ’
शक्ति दे, मन को सुदृढ़ बनाऊँ!
कितना भी गहरा संकट हो, तनिक नहीं घबराऊँ