bhakti ganga
सोच में यदि दिन रात मरुँ
क्यों फिर पूजा-पाठ, जोग-जप, व्रत-उपवास करूँ!
यदि तू भी नियमों के बस में
क्यों हम बता जुड़ें आपस में?
कुटिल काल-लहरों में फँस, मैं
किसके चरण धरूँ!
यदि कर में डाँड़ें दे, स्वामी!
तूने आ पतवार न थामी
ले यह मन चंचल, सुखकामी
कैसे सिन्धु तरुँ!
दोषी भी सुत जब अकुलाता
कभी पिता से देखा जाता
दैव अटल यदि, सृष्टि-विधाता
बल तो दे, न डरुँ
सोच में यदि दिन रात मरुँ
क्यों फिर पूजा-पाठ, जोग-जप, व्रत-उपवास करूँ!