ravindranath:Hindi ke darpan me

भैरवीगान

उगो, के तूमि बोसिया उदास मुरति बिषाद शांत शोभाते !
उई भैरवी आर गायो नाको एई प्रभाते
मोर गृहछाड़ा एई पथिक परान तरून हृदय लोभाते ।।

उई मन-उदासीन उई आशाहीन उई भाषाहीन काकली
देय ब्याकुल परशे सकल जीवन बिकली ।
देय चरने बाँधिया प्रेमबाहू-घेरा अश्रुकोमल शिकलि ।
हाय मिछे मने होय जिवनेर ब्रत, मिछे मने होय सकलई ।।

यारे फेलिया एसेछि, मने करि, तारे फिरे देखे आसि शेषबार ।
उई काँदिछे से जेनो एलाये आकुल केशभार ।
यारा गृहछाए बशी सजल नयन मूख मने पड़े से-सबार।।

एयि संकटमय कर्मजीवन मने होय मरू साहारा,
दूरे मायामय पूरे दितेछे दैत्य पाहारा ।
तबे फिरे जाउ़या भालो ताहादेर पाशे पथ चेये आछे याहारा ।।

भैरवीगान

तू कौन, प्रात की करुण विदा की वेला में
कर मुख उदास, भैरवी लगी सन्मुख गाने
मेरे गृहत्यागी मन को सुर ये बेध रहे
ढीले होते जाते संकल्पों के ताने

यह भाषाहीन निराशामय स्वरलहरी सुन
मुझको अपनी साधनादिशा मिथ्या लगती
कस अश्रुअर्गला मेरे गतिमय पाँवों में
यह चेतनता को मोहक रंगों से रँगती

जो मुक्तकुंतला, बेसुध भू पर सिसक रही
मैं घर में जिसे बिलखता छोड़ चला आया
जी करता है अब उड़कर उसके पास पहुँच
मैं गले लगा लूँ फिर वह शीर्ण, मलिन काया

जलहीन मीन-सी मेरी प्रिया विकल होगी
कैसे काटेगी अब वह एकाकी जीवन
वह कक्ष जहाँ वीणाध्वनि गूँजा करती थी
मैं सुनता हूँ अब उससे आता हुआ रुदन

 

सेई छायाते बसिया सारा दिनमान, तरुमर्मर पवने,
सेई मूकूल आकूल वकूल कूंजभवने,
सेई कूहूकूहरित बिरहरोदन थेके थेके पशे श्रवने ।।

सेई चिरकलतान उदार गंगा बहिछे आँधारे आलोके,
सेई तीरे चिरदिन खेलिछे बालिका-बालके ।
धीरे सारा देह जेनो मूँदिया आशिछे स्वप्नपाखिर पालके ।।

हाय, अतृप्त यत महत् वासना गोपनमर्मदाहिनी,
एई आपनामाझारे शुष्क जीवन-वाहिनी ।
उई भैरवी दिया गाँथिया-गाँथिया रचिबो निराशा काहिनी ।।

सदा करुन कंठे काँदिया गाहिबे, “होलो ना, किछूई होबे ना ।
एई मायामय भवे चिरदिन किछू रबे ना
के जीवनेर जत गुरुभार ब्रत धूलि होते तूलि लबे ना ।।

यह किस छलनामय मरुप्रदेश में आया मैं
लगता ज्यों कोई दैत्य यहाँ है पहरे पर
क्या पा लूँगा इस कठिन कर्मपथ पर चलकर !
क्यों छोड़ा मैंने अपना शांतिप्रेममय घर !

वह घर मेरा था कितना, आह ! सुखद जिसमें
पत्नी के थे मृदु वचन ताप मन का हरते
मैं चिंता-मुक्त जहाँ दिन काटा करता था
अब पीड़ा होती है जिसकी स्मृति भी करते

शिशु जहाँ खेलते आँगन में थी चहल-पहल
मित्रों का जमघट, होता हास्य-विनोद जहाँ
वे राग-रंग, वे प्रेम और ममता के स्वर
पाऊँगा अब मैं वह सुख, वह उल्लास कहाँ !

जीवन में हैं अतृप्त वासनाएँ कितनी !
जो स्वप्न अधूरे, क्या पूरे कर पाऊँगा!
अब उन्हें बाँधकर सुर में इसी भैरवी के
लौटूँगा मैं, अब और न आगे जाऊँगा

 

‘यदि काज नीते होय कत काज आछे, एका कि पारिबो करिते !
काँदे शिशिर-बिंदु जगतेर तृषा हरिते !
केनो अकूल सागरे जीवन सोंपिबो एकेला जीर्ण तरीते ।।

‘शेष देखिबो पड़िलो सुखयौवन फूलेर मतन खसिया
हाय वसंतवायु मिछे चले गेलो श्वसिया,
सेई जेखाने जगत् छीलो एक काले सेईखाने आछे बसिया ।।

“शुधू आमार जीवन मरिलो झरिया चिर जीवनेर तियासे ।
एई दग्ध हृदय एतो दिन आछे की आशे !
सेई डागर नयन, सरस अधर गेलो चलि कोथा दिया से !’

उगो, थामो, यारे तूमि बिदाय दियेछो तारे आर फिरे चेयो ना ।
उई अश्रुसजल भैरवी आर गेयो ना
आजि प्रथम प्रभाते चलिबार पथ नयनवाष्पे छेयो ना ।।

मुझ-से कितने ही लोग गए श्रम कर-कर के
कुछ हुआ न अब तक और न कुछ भी होना है
जग में कुछ कर दिखलाने की यह आकांक्षा
चींटी के मस्तक पर हिमगिरि को ढोना है

हैं कार्य अमित क्या कर लूँगा मैं एकाकी !
मैं तुहिन-बिंदु, कैसे जगतृषा मिटाऊँगा !
निज जीवन के वासंती दिवस गँवाकर भी
इस जग को वैसे का वैसा ही पाऊँगा

जगतृषातृप्ति-हित क्यों दूँ खपा स्वयं को मैं !
वह बुझी कभी, लोगों ने कितना यत्न किया !
वे सजल नयन, वे सरस अधर हैं बुला रहे
जाऊँगा मैं तो जहाँ बसी है प्राण-प्रिया

पर, हाय ! करूँ क्या ! इधर भैरवी खींच रही
हैं उधर कठिन संकल्प लिए जो सेवा के
मैं कितना भी रोऊँ, मन कितना भी तड़पे
अब लौट न पाऊँगा पर इस पथ पर आके

 

उई कुहक रागिनी एखोनि केनो गो पथिकेर प्रान बिबशॆ
पथे एखोनो उठिबे प्रखर तपन दिवसे
पथे राक्षसी सेई तिमिर रजनी ना जानि कोथाय निबसे

थामो, शुधू एकबार डाकि नाम तार नवीन जीवन भरिया,
जाबो यार बल पेये संसारपथ तरिया
यत मानवेर गुरु महत् जनेर चरन-चिह्न धरिया ।।

याऊ ताहादेर काछे घरे यारा आछे पाषाने परान बाँधिया,
गाउ तादेर जीवने तादेर वेदने काँदिया ।
तारा पड़े भूमितले, भासे आँखिजले निज साधे बाद साधिया ।।

हाय, उठिते चाहिछे परान, तबूउ पारे ना ताहारा उठिते ।
तारा पारे ना ललित लतार बाँधन टूटिते
तारा पथ जानियाछे, दिवानिशि तबू पथ-पाशे रहे लूटिते ।।

अब लाख लुभाएँ स्वर ये मुझे भैरवी के
पथ कितना भी दुर्गम हो अंत न ज्ञात मुझे
पर मन को दृढ़ कर चलते ही जाना होगा
ले घेर भले ही आगे काली रात मुझे

हो चुका विदा जिनसे न उन्हें अब याद करूँ
यह अश्रु-सिक्त भैरवी और मत गावो तुम
जो मेरी बिछुड़ी प्रिया सिसकती है घर में
हे गायक ! अब उसकी मत याद दिलावो तुम

अब बंद करो गायन मैं उनकी स्मृति कर लूँ
जिन गुरुजन से पाया यह नव जीवन का वर
कर्त्तव्य-मार्ग यह कितना भी हो कष्टभरा
मैं मुड़ न सकूँगा चल उनके पदचिह्नों पर

कितना है दुख, संताप-विकल यह जग सारा
मैं अब इसकी सेवा में दिवस बिताऊँगा
निज जीवन के सुख-भोगों की बलि दे कर ही
कुछ तो इसकी पीड़ा को कम कर जाऊँगा

 

तारा अलस बेदन करिबे यापन अलस रागिनी गाहिया,
रबे दूर आलो-पाने आबिष्टप्राने चाहिया ।
उई मधूर रोदने भेसे जाबे तारा दिवस-रजनी बाहिया ।।

सेई आपनार गाने आपनि गलिया आपनारे तारा भूलाबे,
स्नेहे आपनार देहे सकरुण कर बूलाबे ।
शूखे कोमल शयने राखिया जीवन घूमेर दोलाय दूलाबे ।।

उगो, एर चेये भालो प्रखर दहन, निठूर आघात चरने ।
जाबो आजीवन काल पाषाणकठिन सरने ।
यदि मृत्युर माझे निये जाय पथ शूख आछे सेई मरने ।।

दुःख भोग रहे जो अपने घर की सीमा में
संघर्ष सदा अपने मन से ही करते हैं
पाती न टूट पाँवों में लिपटी पुष्प-लता
है साध किन्तु साधना-सिद्धि से डरते हैं

सम्मुख पथ का आलोक चमकता है फिर भी
फूलों की शैय्या छूट न जिनसे पाती है
दे तर्क विविध संतुष्ट स्वयं को कर लेते
दुख जाते भूल, नींद जब सुख की आती है

उनके सुख-दुख का साथी बनकर, मैं उनको
मंगलमय जीवन का शुभ मार्ग दिखाऊँगा
हो यह सेवाव्रत कठिन, न छोडूँगा इसको
इस पथ पर मरने में भी सुख ही पाऊँगा