naye prabhat ki angdaiyiyan
ओ फिलिस्तीनो!
ओ फिलिस्तीनो!
जब मैं अपने पिता के पास जाकर कहूँगा
कि तुमने मुझे कितना सताया है,
मदोन्मत्त झूमते हुए
मेरी आत्मा को कितनी बार सलीब पर लटकाया है,
तो वह कितना दुखी होगा!
यह बात नहीं है
कि वह देख नहीं रहा है,
तुम्हारे ललाट पर काजलसनी उँगली
टेक नहीं रहा है,
पर पुत्र के मुख से उसकी उत्पीड़न-कथा सुनकर
कौन पिता अपना क्रोध सँभाल पाता है!
यह ऐसी पीड़ा है
जिस पर देवताओं को भी रोना आता है!
जब वह सुनेगा
कि तुमने सलीब पर टाँगकर भी मझे मरने नहीं दिया था,
मेरे रक्त-चिह्नों को भी
धरती पर उभरने नहीं दिया था,
तो उसके माथे पर बल पड़ जायेंगे,
दूर खड़े देवदूतों के प्राण भी दहल जायेंगे,
यद्यपि बार-बार यही देखा जाता है
कि हर युग का मसीहा
मरकर ही नया जीवन पाता है,
माना कि दुबारा फिर जब एक सीधे, सच्चे इंसान को
उसने दूत बनाकर भेजा था,
उसको अपना संदेश सहेजा था,
तो फिर उसे तुमने ऐसे ही सताया था,
यद्यपि वह मर नहीं पाया था,
परंतु उसके नवासों ने उसके जीवन का मोल
अपने रक्त की बूँद-बूँद से चुकाया था;
यह भी माना
कि संसार के हर भाग में तुम जैसे लोग रहते हैं,
देवदूत जब भी आते हैं,
ऐसी ही यातनायें सहते हैं,
परंतु मुझे डर है
इस बार की हँसी तुम्हें भारी न पड़ जाय,
मेरे पिता का रोष हद से ज्यादा न बढ़ जाय;
यों तो विश्वास रक्खो
ओ फिलिस्तीनो!
मैं भी अंत में जोड़ दूँगा,
पिता। क्षमा कर दो इनका अपराध,
ये जानते नहीं, ये क्या कर रहे हैं ‘
परंतु यह संभव नहीं
कि अपनी कहानी अनकही छोड़ दूँगा।
1982