naye prabhat ki angdaiyiyan

कृति और कृतिकार

ऊँचे-ऊँचे चरित्रों की सृष्टि करना तो आसान है,
उनका अनुगमन करना कठिन है,
कागज पर तो एक-से-एक चित्र उतर आते हैं।
जीवन में उनका उतरना कठिन है।

मैंने माना
कि लिखते समय
सदा आपको कोई महान विचार दिखा है,
प्रश्न तो यह है–
क्या आप उस पर आचरण भी करते हैं
जो आपने लिखा है!
मुँह से आप सदा राम का नाम लेते हैं,
यह मैंने जान लिया है,
‘पर सच-सच बताएँ,
क्या आपने मन में भी राम बनना ठान लिया है !
किसी लावण्यमयी तरुणी को अकेली देखकर
क्या आप रावण की तरह उसे अपनी बनाना नहीं चाहते ?
विविध छल-बल, कला-कौशल द्वारा
उसका मन लुभाना नहीं चाहते!
माना कि आप कभी-कभी
महापुरुषों की तरह भी जी लेते हैं,
सुकरात-से हँसते हुए जहर का प्याला भी पी लेते हैं,
पर उस समय भी
क्या आपके मन में यह भाव नहीं रहता
कि कोई चुपचाप आपके कान में आकर कहता,
“किसी युक्ति से आपको बचा लिया जायगा,
नाक तक फूलमालाओं से लाद दिया जायगा।’

यह भी माना कि कुम्हार की तरह
आप एक-से-एक वीर और बाँके
अश्वारोहियों की मूर्तियाँ गढ़ते हैं,
पर मुझे यह बतायें–
क्या स्वयं आप सदा गर्दभ पर ही नहीं चढ़ते हैं ?
हरिश्चंद्र का बानक सजाते हैं,
पर क्या स्वयं बात कहकर मुकर नहीं जाते हैं ?
कभी आपने सोचा है,
वह दूसरों को कैसे छुएगा
जिस पावक ने आपको ही नहीं छुआ है!
दूसरों में कैसे घटित होगा
जो स्वयं आपमें ही घटित नहीं हुआ है !

नहीं, केवल लिखते जाने से काम नहीं चलेगा,
जो लिखा है उसे करके भी दिखाना होगा;
शब्द जब तलवार लेकर उठ खड़े होंगे
तो सबसे पहले
अपना ही मस्तक कटाना होगा।

हृदय से निकली पुकार ही
हृदय तक पहुँचती है,
अभिनेता और कलाकारों की बात मैं नहीं करता,
कविता में तो
कवि की निजी भावना ही मन को रुचती है।

1983