ahalya

इस ओर व्यर्थ लगता था जीवन प्रिया-हीन
उर्वशी, मेनका, रंभा, तिलोत्तमा, विलीन
परिपक्व रसाल विशाल, जहाँ, क्या पनस दीन!
सुरपति को मिलती थी पल भी स्थिरता कहीं न
परिषद या अंतःपुर में

यज्ञानल में जलता रह जाता हव्य-भाग
मंत्रणा बीच कर देते सहसा सभा-त्याग
निर्दलित शची के आनन का कुंकुम-पराग
लेते विहाग की तान स्वप्न से चौंक, जाग
द्रुत मालकोष के सुर में