roop ki dhoop

अपूर्ण प्रेम

रात सपने में कोई आया था
आँख रोयी-सी, मुँह उदास-उदास
साँस ज्यों टूटती लहर कोई
स्याह धब्बे-से थे चिबुक के पास

हाथ जैसे कि चाँदनी के गुलाब
पीले, मुरझाये ओस में डूबे
पाँव बढ़-बढ़के ठमक जाते थे
सहमे-सहमे हुए ऊबे-ऊबे

पूछा मैंने कि कौन तुम, तो कहा
‘भूले मुझको! तुम्हारी प्रीत हूँ मैं
मृण्मयी देह से बँधी फिर भी
प्राण-मन से सदा पुनीत हूँ मैं

‘जिसे तुमने कभी सँवारा था
चाँदनी मैं अजान तट की हूँ
मोह तुम ले गये हृदय जिसका
राधिका वही वंशी-वट की हूँ

‘विश्व की क्रूर, कपट-चौसर में
प्रेम हर दाँव हारता ही गया
यौवनी स्वप्न दूटते ही गये
भग्न जीवन पुकारता ही गया

प्यार का फूल खिला, मुरझाया
चित्र धुँधले पड़े, मिटे, खोये
अब प्रलय तक न दीख पायेंगे
स्वप्न जो भू-समाधि में सोये

‘जा रही मैं सदा-सदा को आज
हाय! मुड़कर तनिक निहार तो लो
कभी सर्वस्व हारनेवाले
आज दो बूँद अश्रु वार तो लो

‘जो दिये वचन आज लौटा लो
गाँठ जो बँधी, खोल लेने दो
आँख जग की बचा के आयी हूँ.
शेष की बात बोल लेने दो

‘भीत बालू की उठाते थे तुम
प्रेम की तुनुक प्रतिज्ञाओं की
हँस रहा था उधर समय का ज्वार
तोलता शक्ति अपनी बाँहों की

‘हाय! ऐसे भुला दिया तुमने
जैसे पहले कभी मिले ही न थे
उन कुँवारी अजान साधों की
डाल पर फूल बन खिले ही न थे!

‘सच कि मैंने स्वयं को बेच दिया
रूप अपना भी कभी देखा है!
चाँद-से शुभ्र भाल पर कैसी
काल की क्रूर, कुटिल रेखा है!

‘कभी अनुभूति हुई वैसी फिर
स्नेह-उन्मत्त डोलना, रहना!
जिन दृगों से कभी चाहा था मुझे
शपथ उन्हींकी आज, सच कहना

‘अब उसी जन्म में मिलेंगे हम
बन पड़ोसी किशोर वयवाले
प्रेम के पाठ भुला बैठे जो
फिर वहीं पर पढ़ेंगे मतवाले

स्थूल तन का स्वरूप कुछ भी हो
भूल पहचान में नहीं होगी
आज कर्तव्य निभा लें अपना
मृत्यु पर भेंट कल वहीं होगी

‘भूल ऐसी न किंतु फिर करना
पास आऊँ तो रोक भी न सको
अश्रु देखो तो चूम भी न सकों
हास देखो तो टोक भी न सको

भीरु नारीत्व, विश्व का पहरा
लाज की स्वर्ण-श्रृंखला मन में
छोड़ देना न प्रेम को तुम भी
फिर दुबारा अपूर्ण जीवन में!

काँप कर मूँद ली आँखें मैंने
आह सीने से पर निकल ही गयी
रोकने के प्रयतत लाख किये
चाँदनी रात किंतु ढल ही गयी

1964