roop ki dhoop

बेढबजी

वाणी में बहक घोलनेवाले न रहे
चिड़ियों की चहक खोलनेवाले न रहे
हम हार भी गृँथे तो पिन्हायें किनको !
फूलों की महक तोलनेवाले न रहे

हिंदी के लिये जूझने वाले न रहे
कवियों की गिरा पूजनेवाले न रहे
साहित्य-सभा मौन हुई काशी की
वीणा की तरह गूँजनेवाले न रहे

जो हास्य सुनाये थे सभी झूठे थे!
रुचते ही नहीं व्यंग्य जो अनूठे थे
क्यों आज रुलाते हैं हमें बेढबजी!
ऐसे तो कभी आप नहीं रूठे थे

1968