roop ki dhoop
विमुक्ति
गहन नभ की अँधेरी घाटियों के पार जाता मैं
न तन का बोझ प्राणों पर, न मन पर गाँठ चेतन की
सतत घूर्णित अकेला भग्न ज्योतिष्पिंड ज्यों रवि का
चिरंतन मुक्ति का विश्वास, शाश्वत प्यास जीवन की
अजन्मा भूमि पर जैसे अदेखे स्वप्न का अंचल
अतल के अनस्तित्वों में छिपी चिर-शून्य की काया
मरण के पाश से चिर-मुक्त, जीवन से सतत वंचित,
असतू-सत् से विलक्षण ज्यों बिना आधार की छाया
गगन से टूटते नक्षत्र की मिटती हुई रेखा
चिरंतन ज्योति-सागर में अँधेरे की भँवर कोई
प्रलय की गोद में लेटी सृजन की मोहिनी माया
किसी के स्वप्न में जागी हुई चिर-काल को सोयी
1962