aayu banee prastavana

कैसे मिलें प्राण प्राणों से, उर उर के स्पंदन से!
कैसे व्यक्त करूँ मैं अपना प्रेम तुम्हारे मन से!

भुजपाशों में समा न पाता मन का रूप तुम्हारा
स्मितियों का माधुर्य न बँधता चुंबन से ज्यों पारा
पीकर भी बुझती न तृषा जो प्राणों में बल खाती
पल भर भी न ठहरती तट के पास पहुँचकर धारा

तड़प रहा उन्माद न बँधता बाँहों के बंधन से

कोई तो है गाँठ कहीं जो खोल नहीं मैं पाता
रेशम के धागे सुलझाता आप उलझता जाता
कैसे स्पर्श करूँ अंतर का, तन का अंतर खोकर!
उससे कैसे मिलूँ कि जिससे जन्म-जन्म का नाता!

बाँध दिया था मन को जिसने लाजभरी चितवन से

विद्युत का प्रवाह नस-नस के तारों में बहता है
टूटी सूर्य-शिला-सा जीवन मिटता ही रहता है
तन का नहीं अतनु, प्राणों का प्राण वही रस-गोपन
जिसकी ज्योतिर्मय धारा में हृदय-पुष्प बहता है

साँस-साँस उफनाती जिसके सर्पिल आलिंगन से

शब्दों से, लय से, कंचन से अथवा ताजमहल से!
मन से, प्राणों से, आत्मा से या अनात्म के तल से!
गिरि को चीर, मरुस्थल में सागर को धार बहाकर!
कैसे बाहर करूँ प्रेम की पीड़ा अंतस्तल से!

कैसे मुक्ति मिले प्राणों को इस मधुमयी जलन से!
कैसे व्यक्त करूँ मैं अपना प्रेम तुम्हारे मन से!

1965