aayu banee prastavana

गिरा खोया हुआ जैसे कहीं कुछ पा गया हूँ मैं
सुना है, आज प्राणों को किसीके भा गया हूँ मैं

किसीने ली न अँगड़ाई कि कलियों की हँसी फूटी
किसीकी देख परछाई, तिमिर में तारिका टूटी
सहस्रों जल गये दीपक, किसीके दृग उठाते ही
किसीकी भौंह सकुचायी कि वन-वन रागिनी छूटी

किसीकी साँस से खिंचकर कहाँ अब आ गया हूँ मैं!

वही जो चाँदनी बनकर जलधि की बाँह पर हँसती
प्रभाती में वही जो नभ-किरण की कंचुकी कसती
तड़ित भ्रू-भंग, मौक्तिक-सा छलकता रूप का पानी
वहीं जो रागिनी सुकुमार जग के प्राण में बसती

उसीको मूर्त पा सम्मुख, सिहर, सकुचा गया हूँ मैं

विरह में बेदना है, वेदना में एक सुख भी है
मिलन यह तो विरह-भय से, विकल, बेसुध, विमुख भी है
न गति रुक जाय मेरी, छू किसीके प्राण की सीमा
बहुत सुख है सुनहले बाहुओं में, एक दुख भी है

ललक छवि की कहाँ, जिसके लिए बढ़ता गया हूँ मैं!
सुना है आज प्राणों को किसी के भा गया हूँ मैं

1951