aayu banee prastavana
प्राण-वीणा के सुनहले तार जब खुलने लगेंगे,
मैं तुम्हें किन बंधनों में बाँध पाऊँगा!
काँपकर मिट जायगी झंकार जब मेरे स्वरों की,
यह मिलन-संगीत भी कैसे सुनाऊँगा।
और मेरा चित्र कैसे, प्रिय! तुम्हें पुलकित करेगा,
चित्र, जिसमें प्राण के स्पंदन नहीं होंगे!
धूसरित, नीरव, अमांसल, पृष्ठ मेरी पुस्तकों के,
चाँदनी के स्पर्श से चेतन नहीं होंगे
क्षीण सुधि का दीप कैसे जल सकेगा आँधियों में,
जब न तुमको झलक भी अपनी दिखाऊँगा!
आज माना यह, तुम्हारी चेतना के नील नभ में,
मैं अकेला चाँद जैसा मुस्कुराता हूँ
आज माना यह, तुम्हारे हाथ का पाटल-कुसुम मैं,
ओंठ से लगकर हृदय के पास आता हूँ
किंतु कैसे कल तुम्हारे प्राण को सहला सकूँगा
शून्य में जब अनदिखे दीपक जलाऊँगा!
नग्न पाँवों में सरकती बालुका के रिलमिले-सा,
तुम मुझे प्रति-स्पर्श में पहचान भर लेना
बंद पलको पर अतिंद्रिय रवि-किरण का भार जैसे,
चेतना के पास मुझको जान भर लेना
करवटें भरती तुम्हारी धड़कनों में जग रहा-सा,
मैं तुम्हारे प्राण में हो लीन जाऊँगा
प्राण-वीणा के सुनहले तार जब खुलने लगेंगे,
मैं तुम्हें किन बंधनों में बाँध पाऊँगा!
1965