aayu banee prastavana

फिरता रहा चतुर्दिक जग में विकल, विफल, भरमाया
मेरे सिर पर पड़ी रही किस गहन पाप की छाया!

जिस सरिता के तीर गया मैं सूख गयी वह पल में
जिस शाखा को छूआ, टूटकर गिरी वहीं से जल में
जिसे दिया ओंठों पर मैंने फूट गया वह प्याला
झुलस गयी माला जो मैंने ले ली निज करतल में

जहाँ-जहाँ मैं गया नाश ने अपना नृत्य दिखाया

मुझे हृदय दे बैठी धरती की सुंदरतम बाला
मीत बना जिसने पग-पग पर गिरते हुए सँभाला
प्रतिभा देख मूर्त हो आया सपनों का नंदनवन
यौवन ने छवि के साँचे में मेरा अणु-अणु ढाला

किसका शाप, सभी में जैसे मर्म-विषाद समाया!

किसी पद्मिनी के हित मैंने नगर जलाया कोई!
छल से हँसा चूम ली कोई चितवन अश्रु-भिगोयी
प्रणय-पाश में बाँध किसीका हृदय हरिण-सा चंचल
चला गया चुपचाप छोड़कर उसे नींद में सोयी

लज्जा-मूक किसी बाला को मैंने था तड़पाया
फिरता रहा चतुर्दिक जग में विकल, विफल, भरमाया
मेरे सिर पर पड़ी रही किस गहन पाप की छाया!

1957