aayu banee prastavana

मेरे भाग्य पड़ी जो मदिरा, वह न किसीको मिल पाती है

मेरे मधु का रूप नया है, मेरे मधु का रंग निराला
वह गंगाजल-सा पावन है, शंभु-शीश पर रहनेवाला
रत्न चौदहों सागर के, उसकी तुलना में तुच्छ ठहरते
एक घूँट में अमृत, दूसरे में कटु, तिक्त गरल की ज्वाला

उसके पीने से चेतनता, दुहरी-तिहरी बल खाती हैं

एक बार पुरुरवा बना था में इस एकाकी जीवन में
मेरी आत्मा कौ मणि मुझको छोड़ गयी है सूनेपन में
चिर-अभिशप्त शेष-सा सिर पर धरा-मेरु का बोझ सँभाले
मैं कपोत-सा भेजा करता गीत उसीको नंदनवन में

जाने, उस पाषाणी को भी मेरी याद कभी आती है!

जाते क्षण देखा मुड़ मैंने, जुड़े कपाटों-से युग करतल
अश्रु-धवल अर्गला मुँद गयी, थर-थर पलकों के दल विह्वल
समझ गया जीवित फिर आना संभव अब न कभी है उसका
जीते-जी दिख भी न सकेगी, वह अब मेरे नयनों को कल

“प्रिये! प्राण की प्राण !’ रो उठा हृदय, ‘चेतना, लो जाती है’

प्रथम वसंत-प्रभात-पुलिन-नत नलिन-वधू में मृदुता जितनी
गीतों में भर प्रणय-तरलता, मृदु कोमल तन्मयता उतनी
विरही यक्ष मेघ से कहता, मैं नीरव शशि से अंबर के
“हे शशि! पा संदेश न मेरा, मेरी प्रिया विकल है कितनी !!

ग्रत्युत्तर में पर मुझ तक आ, किरण मौन बस मुस्काती है

विरह-कूल पर मेरा जीवन फूल-सदृश कुम्हलाया जाता
जिसे भूल से प्यार किया था, उसको नहीं भुलाया जाता
झंझा-लहरों की जड़ता में थककर सो जाऊँ तो अच्छा
कठिन विरह का बोझ प्राण से अब तो नहीं उठाया जाता

बिखर गये टुकड़े हो इससे, जिनकी पत्थर-सी छाती हैं
मेरे भाग्य पड़ी जो मदिरा वह न किसीको मिल पाती है

1950