aayu banee prastavana
आ सकूँ यदि मैं न आधी रात को सागर किनारे
नाव कागज की लहर पर छोड़ देना
देखना मुड़कर न फिर यह प्रेम कितना भी पुकारे
प्राण का बंधन निमिष में तोड़ देना
स्वर्ण-रथ होगा कहीं करता प्रतीक्षा
चाँदनी जब चाँद से रूठी, फिरी होगी
भगत तारों-सी तिमिर-पथ के किनारे
पाँत सपनों की कहीं टूटी, गिरी होगी
तब चमकते मोतियों में कुटिलता मन की छिपाये
बुझ रही लौ में नया जो स्नेह भर देगा
पलक जिसके भार से झुकने लगेगी
सजल दृग उससे न भय खा मोड़ लेना
मैं निरीह, नितांत निःसंबल, निराला
विश्व में जिसकी न तुक या ताल मिलती है
जो रचाता फाग दीपावलि-निशा में
भाग्य से जिसकी न कोई चाल मिलती है
भग्न अंचल में भरे जो रत्न तुमने प्रीति के क्षण
रख न पाया दो खड़ी भी शिशु-हृदय जिसका
जोड़ सकता जो न टूटे तार मन के
क्या भला झंकार उससे जोड़ लेना
मान इतना फूल का होगा स्वरों से
कीट-दंशन भी मधुर उन्मादमय होगा
मिल सुहागे-सा कनक में यह सजल क्षण
चेतना के पूर्व जन्मों का प्रणय होगा
रक्त मेरे प्राण का रंजित चरण में
नेत्र अंजित प्राण की मेरी उदासी से
हार कर लेना गले का हार मेरी
क्षुब्ध सागर की लहर से होड़ लेना
आ सकूँ यदि मैं न आधी रात को सागर किनारे
नाव कागज की लहर पर छोड़ देना
देखना मुड़कर न फिर यह प्रेम कितना भी पुकारे
प्राण का बंधन निमिष में तोड़ देना
1965