aayu banee prastavana

रूप की राह में, प्रेम की चाह में,
मन मचलता गया और चलता गया!
रात घिरती गयी, देह गिरती गयी,
दीप जलता गया, मैं पिघलता गया

कौन आया क्षितिज पर नया चाँद बन,
तारकों को हँसी थरथराने लगी!
मालती खिल गयी, यूथिका हिल गयी,
रात घूँघट तिमिर का उठाने लगी
चाँदनी पर्वतों के शिखर से उतर,
दूब पर अश्रु-धारा बहाने लगी
मेघ छंटने लगे, फूल खिलने लगे,
व्योम झुकने लगा, भूमि गाने लगी

तुम कसकती रही, मैं सिसकता रहा,
चाँद उठता गया, स्वप्न ढलता गया

हार किरणें बनाकर मुझे दे गयीं,
मंद मारुत अलक झिलमिलाता गया
स्पर्श जैसी तुम्हारे लगी चाँदनी,
मैं कली-सा कलेजा बिंधाता गया
नूपुरों की झनक प्राण में बज उठी,
साँस की धड़कनों में बुलाता गया
दिख पड़ी स्वप्न-सी सामने ही खड़ी,
तुम सकुचती गयी, मैं सिहाता गया

तुम निखरती गयी, मैं बिखरता गया,
तुम बिछलती गयी, मैं मचलता गया

वह हँसी अब हृदय में धँसी तीर-सी,
वे नयन स्नेह-भीने बसे प्राण में
वे सलज चितवनें, रात जिनसे रँगी,
एक उन्माद जैसी रहीं ध्यान में
साँस की गंध जैसे बसी साँस में,
चूड़ियों की झनक ज्यों बसी कान में
स्वप्न कैसे कहूँ सत्य पहिचान को!
मिल गयी तुम मुझे देश अनजान में

नेत्र रोते रहे, मन सँभलता गया,
प्राण फँसते गये, मैं निकलता गया

गीत में अब वहीं प्रेरणा बन गयी,
कर्म-पथ में वही चेतना की लहर
वेदना प्राण में, मर्म में मूर्च्छना,
साधना की शिखा श्वास में, पल-प्रहर
मृत्यु की भावना, जन्म की कामना,
मैं उसीके लिए दौड़ता आयु भर
संगिनी एक निशि की मिलेगी कभी,
रंगिनी वह, मरण के कनक-द्वार पर!

विश्व छलता गया, मैं बदलता गया,
याद जलती रही, प्रेम पलता गया

रूप की राह में, प्रेम की चाह में,
मन मचलता गया और चलता गया

रात घिरती गयी, देह गिरती गयी,
दीप जलता गया, मैं पिघलता गया

1955