ahalya

बिँध रहा एक शर, अपर सामने अड़्ता था
विष और अमृत का निर्झर साथ उमड़ता था
जल, क्रुद्ध-विरुद्ध दिशा से ज्यों-ज्यों बढ़ता था
सपनों का नंदन बसता और उजड़ता था
बन गयी मुक्ति कारा-सी

थी खड़ी अहल्या छिन्न सुमन का हार लिये
विधवा जैसे कोई षोड़श श्रृंगार किये
मुनिवर ने स्वतः पराजित शस्त्र उतार दिये
थी मूल प्रकृति जग रही आवरण तार किये
हिम-गिरि-विमुक्त धारा-सी