ahalya

स्मर से देखी स्वामी की यह जड़ता न गयी
फिर कुसुम-शरासन लिये चला वह जग-विजयी
व्यापी त्रिभुवन में मोह-निशा उन्मादमयी
सुर्मई दृगों पर चढ़ी भौंह, काँपे प्रणयी
मुनियों के मानस सिहरे

गुंजित वसंत के छंद-बंध से मधुप-वृंद
उड़ चले चकित चंद्रातप कुंजों में अमंद
असमय मधु-याचित कंज सरों में रहे बंद!
निर्द्वन्द्व, खोलते दल पर दल, मृदु मंद-स्पंद
विधु की छाया-सँग बिहरे