ahalya

‘जीवन के जड़ सुख-भोग भोग जो इष्ट तुझे
पत्थर-सी आत्मा-रहित न जिसकी प्यास बुझे
दे मुक्ति, चला मैं, अब मत देना दोष मुझे’
स्वर हुए अगोचर मुक्ताकण पर बिना रुझे
दृग से झर-झर जो टूटे

सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीत
पतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे भीत
पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत
रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत
निज भाग्य-अंक ले फूटे