ahalya

‘सुत-विरुद न करता नर्तित किसका मन मयूर!
मृदु वचन आपके देव सत्य से किंतु दूर
दुधमुँहै वत्स ये कहाँ असुरगण छली, क्रूर!
कर सका शिरीष-सुमन पर्वत को चूर-चूर!
सुनकर ही मन कँपता है

‘फिर साथ सहाय न सचिव, सैन्य भी रहे यहाँ!
वनचर-रिपु-संकुल-आश्रम, क्षण-क्षण मृत्यु जहाँ
दो-दो पुत्रों को, हाय! अकेले भेज वहाँ
ऐसा पवि-हृदय पिता त्रिभुवन के बीच कहाँ
जो जीवित रह सकता है!