ahalya

‘चारों पुत्रों पर प्रीति समान सदा की है
मुनिवर! पर जेठे में तो अटक रहा जी है
पलकों की झपकन भी बेदेखे युग-सी है
सब रहा राम से, शून्य अन्यथा धरती है
मैं उसे देख जीता हूँ

‘वह मेरे उर की धड़कन, साँसों का स्पंदन
चेतन का चेतन, मेरी ही आत्मा का कण
जीवन का शाश्वत ध्येय, मुग्ध मन का दर्पण
वह रत्न अलौकिक जिसे गँवाकर मैं निर्धन
सब होते भी रीता हूँ