bhakti ganga

तूने कैसा खेल रचाया!
क्या है सत्य, झूठ क्या इसमें, कुछ न समझ में आया

यद्यपि तनिक दृष्टि जब फेरी
यह तन बनते लगी न देरी
पर क्यों बना राख की ढेरी

फिर-फिर इसे मिटाया ?

बतला, मैं सच हूँ कि नहीं हूँ
तेरा हूँ या कुछ न कहीं हूँ
क्या न सतत आ रहा वहीं हूँ

तूने जहाँ बुलाया?

कुछ तो कह, यह सृष्टि सजाकर
जहाँ सो रहा है तू जाकर
क्या मेरा, क्रंदन, करुणाकर!

वहाँ पहुँच भी पाया

तूने कैसा खेल रचाया!
क्या है सत्य, झूठ क्या इसमें, कुछ न समझ में आया