bhakti ganga

न मिलता यदि अवलंब तुम्हारा
मैं इस तट को छू पता कागज़ की नौका द्वारा!

उठते थे आवर्त भयंकर
सिर पर गरज रहा था अंबर
बढ़ी आ रही थी पल-पल पर

      मुँह फैलाये धारा

आँधी पानी की टक्कर में
सतत डूब जाने के डर में
टिकता कब तक बीच भँवर में

नाविक बिना सहारा!

संगी-साथी एक-एक कर
लौट रहे हैं अब अपने घर
पर मेरा तो अभी तीर पर

    माल पड़ा है सारा

न मिलता यदि अवलंब तुम्हारा
मैं इस तट को छू पता कागज़ की नौका द्वारा!