bhakti ganga
नहीं यदि तुझ तक भी पहुँचेगी
पर मेरी प्रार्थना नहीं क्या मुझे कृतार्थ करेगी!
माना तू है निर्गुण निस्पृह
छूता जिसे न जग का दुख यह
मन में उठती शंका रह-रह
दृष्टि न इधर फिरेगी
यह भी माना जो पहले से
बँधी आ रही बुरे-भले से
वह कर्मों की डोर गले से
सहज नहीं निकलेगी
पर प्रतिध्वनि बन जब मेरा स्वर
तेरे अगम द्वार से मुड़कर
स्नेह-सिक्त कर देगा अंतर
बुझती लौ न जलेगी!
नहीं यदि तुझ तक भी पहुँचेगी
पर मेरी प्रार्थना नहीं क्या मुझे कृतार्थ करेगी!