bhakti ganga
नहीं यदि मेरा त्रास हरोगे
तो प्रभु ! व्यर्थ न अपनी शाश्वतता का दंभ भरोगे
मैंने तुम्हें पिता है माना
निज को अमर अजर ही जाना
चाहे भी यदि काल मिटाना
दौड़ न बाँह धरोगे
ढलता देख दिवस क्षण क्षण में
है आतंक भर रहा मन में
श्रद्धा-ज्योति जगा कर मन में
कब, प्रभु! अभय करोगे?
क्यों मैं, नाथ! तुम्हारे रहते
जीऊँ यह मिथ्या भय सहते!
कभी कान में तो आ कहते
’मैं सँग हूँ, न मरोगे’
नहीं यदि मेरा त्रास हरोगे
तो प्रभु ! व्यर्थ न अपनी शाश्वतता का दंभ भरोगे