bhakti ganga
नहीं विराम लिया है
ज्यों-ज्यों दिवस ढल रहा मैंने चलना तेज़ किया है
तम की इस अनंत घाटी में
क्या यदि तेज़ चले या धीमे!
बस पदचिन्ह एक धरती में
मैंने बना दिया है
ज्ञान भक्ति की लेकर गागर
जो युग-युग से बैठे हैं पथ पर
श्रद्धा की अंजलि फैलाकर
उनसे अमृत पिया है
महाशून्य में लय भी होकर
क्या न बचा लूँगा सब खोकर
मैंने जो हँसकर या रोकर
जीवन यहाँ जिया है
नहीं विराम लिया है
ज्यों-ज्यों दिवस ढल रहा मैंने चलना तेज़ किया है