bhakti ganga
नाथ! तुम कब से हुए विरागी?
कब से टेक दया की छूटी, यह असंगता जागी?
जग की चिंता से मुँह मोड़ा
दीनबंधु कहलाना छोड़ा
कब से सूत्र भक्ति का तोड़ा
करुणा, ममता, त्यागी?
माना, मुझे न सद्गुण भाये
दोष न मेरे जायं गिनाये
जो अपमान-व्यंग-शर खाये
था उनका ही भागी
याद करो पर निज प्रण भारी
क्या न क्षमा का हूँ अधिकारी!
मैंने सब कुछ छोड़, तुम्हारी
पदरज ही प्रभु! माँगी
नाथ! तुम कब से हुए विरागी?
कब से टेक दया की छूटी, यह असंगता जागी?