bhakti ganga

पापिनी ईर्ष्या डूब मरे
पाकर तुझे और पाने की चिंता कौन करे!

ऊँचे-ऊँचे भवन खड़े थे कंचन-कोष भरे
ऐसी आँधी उठी निमिष में धरती पर बिखरे

देख चुका जो भी आये थे खोटे और खरे
क्षुद्र अहम् के लिये न जाने क्या-क्या स्वाँग धरे

क्या करने हैं बाग़-बगीचे पादप हर-हरे!
यह काँटों की बाड़ भली जो सूखे नहीं मरे

हम तो अपनी लघुता में भी रहते डरे-डरे
चार घड़ी के जीवन में क्यों दुनिया के नखरे!

पापिनी ईर्ष्या डूब मरे
पाकर तुझे और पाने की चिंता कौन करे!