bhakti ganga
मन रे! किसने तुझे लुभाया!
फिर-फिर नट-सा चढ़ा बाँस पर, फिर-फिर नीचे आया
पता नहीं, क्यों बेसुध बनकर
चारों ओर दे रहा चक्कर
नचा रही है तुझे निरंतर
क्यों अपनी ही छाया!
करतब तो सौ-सौ दिखलाता
मान बहुत जग से भी पाता
पर उससे भी जोड़ा नाता
तुझे यहाँ जो लाया!
देख-देख निज छवि दर्पण में
पुलक-पुलक उठता है मन में
कैसे मुक्ति मिले बंधन में
कभी सोच भी पाया
मन रे! किसने तुझे लुभाया!
फिर-फिर नट-सा चढ़ा बाँस पर, फिर-फिर नीचे आया