bhakti ganga
मुझे फिर है इस जग में आना
मुक्ति उसे कब भाती जिसने स्वाद प्रेम का जाना!
दैव यही बस दया दिखाये
जाते समय न मन अकुलाये
जो होना हो झट हो जाये
पड़े न अश्रु बहाना
चाहे जहाँ वास दो दिन हो
फिर न लौटना यहाँ कठिन हो
सिर पर चढ़ा कृपा का ऋण हो
सेवक का हो बाना
प्रेम-भक्ति का पाठ भुलाऊँ
स्रष्टा को न सृष्टि में पाऊँ
मैं तो तभी ढूँढने जाऊँ
कोई और ठिकाना
मुझे फिर है इस जग में आना
मुक्ति उसे कब भाती जिसने स्वाद प्रेम का जाना!