bhakti ganga

मैं आँधी का तिनका
जान नहीं पाया अब तक, यह महावेग है किनका

क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरण
जब ये सारे हैं निश्चेतन
कौन किया करता है क्षण-क्षण

फिर संचालन इनका?

मैं अनंत में भटक रहा हूँ
पत्थर पर सिर पटक रहा हूँ
महाशून्य में लटक रहा हूँ

ज्यों पत्ता पुरइन का

मैं अणु नहीं, न मैं तारा हूँ
बंधा न जड़ तत्वों द्वारा हूँ
देश-काल से भी न्यारा हूँ

अनुचर हूँ मैं जिनका

मैं आँधी का तिनका
जान नहीं पाया अब तक, यह महावेग है किनका