bhakti ganga

वही हो नाव, वही हो धारा
पर क्या अगली बार न होगा सुंदर और किनारा !

छूटें भी जो रत्न बटोरे
मोती जिनमें जलधि हिलोरे
पर मन के कागज़ भी कोरे

    होंगे सभी दुबारा !

संचित ज्ञानराशि जीवन की
यह नित-विकसित छवि चेतन की
लय होगी लपटों में तन की !

श्रम निष्फल है सारा !

गत जन्मों के तप जो जागे
बढ़ते क्या न रहेंगे आगे
जब तक मन विश्राम न माँगे

पाकर परस तुम्हारा!

वही हो नाव, वही हो धारा
पर क्या अगली बार न होगा सुंदर और किनारा !