bhakti ganga

शरण में, माँ! मुझको भी ले ले
रहूँ कहीं भी पर मन तेरे आँगन में ही खेले

क्यों मैं द्वार-द्वार नित डोलूँ!
जन-जन के आगे मुँह खोलूँ!
तेरे ही चरणों में रो लूँ

जब दुख जायें न झेले

तेरे स्नेहांचल में पलकर
जीवन होता जाय पूर्णतर
पथ कितना भी दुर्गम हो, पर

रहें न प्राण अकेले

निर्भय रहूँ देख अंतर में
तुझे आयु के शेष प्रहर में
लगे कि लौट रहा हूँ घर में

छोड़ जगत के मेले

शरण में, माँ! मुझको भी ले ले
रहूँ कहीं भी पर मन तेरे आँगन में ही खेले