bhakti ganga

सही कर दे तू, तभी सही है
और नहीं तो बही काल की मैंने व्यर्थ रँगी है

फूल भले ही गूँथे गिन-गिन
गंध टिकेगी पर कितने दिन!
माला वही रहेगी अमलिन

      जो तूने छू दी है

क्या हो हानि-लाभ का लेखा!
जीवन एक स्वप्न ज्यों देखा
जैसे जल पर खींची रेखा

मिटती सतत रही है

पर प्रसाद यदि तेरा पाकर
रहें गूँजते मेरे ये स्वर
तो समझूँगा, आयु धरा पर

     मेरी अमर हुई है

सही कर दे तू, तभी सही है
और नहीं तो बही काल की मैंने व्यर्थ रँगी है